मुझे तुम्हारा तुमसा और
मेरा मुझसा होना अच्छा लगता था..
शब्द नही थे, अर्थ कई थे, फिर भी,
मुझे तुमसे सुनना, फिर
अपनी कहना अच्छा लगता था,
फूल ,चाँद और सितारो से परे..
तुम्हारा मुस्कुराना
और मेरा हँसना अच्छा लगता था..
कोई राह नही थी,
कोई मंज़िल नही थी,
पर मेरा तुझ तक
और तेरा मुझ तक
चल कर आना अच्छा लगता था..
जो लौट चले हो घर को अपने,
तो सोचा, कह दू..
थोड़ा-थोड़ा सा ही सही,
पर पूरा हो जाना अच्छा लगता था